दक्षप्रजापति का भगवान् शिव की स्तुति करना | Lord Shiva's Story of Daksha Prajapati

आज की कथा में:–दक्षप्रजापति का भगवान् शिव की स्तुति करना



          वैशम्पायनजी कहते हैं–‘तदनन्तर, दक्ष प्रजापति ने भगवान् शंकर के सामने दोनों घुटने जमीन पर टेक दिये और अनेक नामों के द्वारा उनकी स्तुति की।’
          युधिष्ठिर ने पूछा–‘तात! जिन नामों से दक्ष ने भगवान् शिव का स्तवन किया था, उन्हें सुनने की इच्छा हो रही है; कृपया सुनाइये।’
          भीष्मजी ने कहा–‘युधिष्ठिर! अद्भुत पराक्रम करने वाले देवाधिदेव शिव के प्रसिद्ध और अप्रसिद्ध सभी तरह के नाम मैं तुम्हें सुना रहा हूँ, सुनो।
          दक्ष बोले–‘देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है। आप देववैरी दानवों की सेना के संहारक और देवराज इन्द्र की भी शक्ति को स्तम्भित करने वाले हैं। देवता और दानव सबने आपकी पूजा की है। आप सहस्रों नेत्रों से युक्त होने के कारण सहस्राक्ष हैं। आपकी इन्द्रियाँ सबसे विलक्षण अर्थात् परोक्ष विषय को भी ग्रहण करने वाली हैं, इसलिये आपको विरूपाक्ष कहते हैं। 
          आप त्रिनेत्रधारी हैं, इस कारण त्र्यक्ष कहलाते हैं। यक्षराज कुबेर के भी आप प्रिय (इष्टदेव) हैं। आपके सब ओर हाथ और पैर हैं, सब ओर आँख, मुँह और मस्तक हैं तथा सब ओर कान हैं। संसार में जो कुछ है, सबको आप व्याप्त करके स्थित हैं। शंकुकर्ण, महाकर्ण, कुम्भकर्ण, अर्णवालय, गजेन्द्रकर्ण, गोकर्ण और पाणिकर्ण–ये सात पार्षद आपके ही स्वरूप हैं–इन सबके रूप में आपको नमस्कार है। 
          आपके सैकड़ों उदर, सैकड़ों आवर्त और सैकड़ों जिह्वाएँ होने के कारण आप शतोदर, शतावर्त और शतजिह्व नाम से प्रसिद्ध हैं; आपको प्रणाम है। गायत्री का जप करने वाले आपकी ही महिमा का गान करते हैं और सूर्योपासक सूर्य के रूप में आपकी ही आराधना करते हैं। मुनि आपको ब्रह्मा मानते हैं और याज्ञिक इन्द्र। 
          ज्ञानी महात्मा आपको संसार से परे तथा आकाश के समान व्यापक समझते हैं। समुद्र और आकाश के समान महत्स्वरूप धारण करने वाले महेश्वर ! जैसे गोशाला में गौएँ निवास करती हैं, उसी प्रकार आपकी भूमि, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा एवं यजमानरूप आठ मूर्तियों में सम्पूर्ण देवताओं का वास है। 
          मैं आपके शरीर में चन्द्रमा, अग्नि, वरुण, सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा तथा बृहस्पति को भी देख रहा हूँ। आप ही कारण, कार्य, प्रयत्न और करणरूप हैं। सत् और असत् पदार्थ आपहीसे उत्पन्न होते और आप ही में लीन हो जाते हैं।
          आप सबके उद्भव (जन्म) का कारण होने से भव, संहार करने के कारण शर्व, रु अर्थात् पाप को दूर करने से रुद्र, वरदाता होने से वरद तथा पशुओं (जीवों) के पालक होने के कारण पशुपति कहलाते हैं। आपने अन्धकासुर का वध किया है, इससे आपको अन्धकघाती कहते हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। 
          आप तीन जटा और तीन मस्तक धारण करने वाले हैं। आपके हाथ में त्रिशूल शोभा पा रहा है। आप त्र्यम्बक–त्रिनेत्रधारी तथा त्रिपुरविनाशक हैं; आपको प्रणाम है। क्रोधवश प्रचण्ड रूप धारण करने से आपका नाम चण्ड है। आपके उदर में सम्पूर्ण जगत् उसी भाँति स्थित है जैसे कुण्डे में जल, इसीलिये आपको कुण्ड कहते हैं। 
          आप ब्रह्माण्ड स्वरूप, ब्रह्माण्ड को धारण करने वाले तथा दण्डधारी हैं। समकर्ण अर्थात् सबकी समानभाव से सुनने वाले हैं। दण्ड धारण करके माथ मुड़ाये रहने वाले संन्यासी भी आपके ही स्वरूप हैं; आपको प्रणाम है। बड़ी-बड़ी डाढ़ें और ऊपर की ओर उठे हुए केश धारण करने वाले आपको नमस्कार है। आप ही विशुद्ध ब्रह्म हैं और आप ही जगत्‌ के रूप में विस्तृत हैं। 
          रजोगुण को अपनाने पर विलोहित तथा तमोगुण का आश्रय लेने पर आप धूम्र कहलाते हैं। आपकी ग्रीवा में नीले रंग का चिह्न है, इसलिये आपको नीलग्रीव कहते हैं; हम आपको प्रणाम करते हैं। आपके समान दूसरा कोई नहीं है, आप नाना प्रकार के रूप धारण करते हैं और परम कल्याणमय शिव स्वरूप हैं। आप ही सूर्यमण्डल और उसमें प्रकाशित होने वाले सूर्य हैं। आपकी ध्वजा और पताका पर सूर्यका चिह्न है; आपको नमस्कार है। 
          प्रमथ गणों के अधीश्वर भगवान् शिव ! आपको प्रणाम है। आपके कंधे वृषभ के कंधों के समान भरे हुए हैं। आप सदा पिनाक धनुष धारण किये रहते हैं। शत्रुओं का दमन करने वाले और दण्डस्वरूप हैं। किरात वेष में विचरते समय आप भोजपत्र और वल्कलवस्त्र धारण करते हैं। हिरण्य (सुवर्ण) को उत्पन्न करने के कारण आपको हिरण्यगर्भ कहते हैं। हिरण्य के कवच और मुकुट धारण करने से आप हिरण्यकवच तथा हिरण्यचूड के नाम से प्रसिद्ध हैं। हिरण्य के आप अधिपति हैं; आपको सादर नमस्कार है।
          जिनकी स्तुति हो चुकी है, हो रही है और जो स्तुति करने योग्य हैं, वे सब आपके ही स्वरूप हैं। आप सर्व, सर्वभक्षी और सब भूतों के अन्तरात्मा हैं; आपको सादर प्रणाम है। आप ही होता हैं और आप ही मन्त्र। आपकी ध्वजा और पताका का रंग श्वेत है; आपको नमस्कार है। आपकी नाभि से सम्पूर्ण जगत् का आविर्भाव होता है। आप संसार-चक्र के नाभिस्थान (केन्द्र) और आवरण के भी आवरण हैं; आपको हमारा प्रणाम है। 
          आपकी नासिका पतली है, इसलिये आप कृशनास कहलाते हैं। आपके अवयव कृश होने से आपको कृशांग तथा शरीर दुबला होने से कृश कहते हैं। आप आनन्दमूर्ति, अति प्रसन्न रहने वाले एवं किल-किल शब्दस्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। आप समस्त प्राणियों के भीतर शयन करने वाले अन्तर्यामी पुरुष हैं, प्रलयकाल में योगनिद्रा का आश्रय लेकर सोने वाले और सृष्टि के प्रारम्भ काल में कल्पान्तनिद्रा से जागने वाले हैं। 
          आप ब्रह्मरूप से सर्वत्र स्थित और कालरूप से सदा दौड़ने वाले हैं। मूँड़ मुड़ाये हुए संन्यासी और जटाधारी तपस्वी भी आपके ही स्वरूप हैं; आपको प्रणाम हैं। आपका ताण्डव नृत्य बराबर चलता रहता है। आप मुँह से श्रृंगी आदि बाजे बजाने में निपुण हैं, कमलपुष्प की भेंट लेने को उत्सुक रहते हैं और गाने-बजाने में मस्त रहा करते हैं; आपको नमस्कार है। 
          आप अवस्था में सबसे ज्येष्ठ और गुणों में भी सबसे श्रेष्ठ हैं। आपने ही बलाभिमानी इन्द्र का मान-मर्दन किया था। आप काल के भी नियन्ता तथा सर्वशक्तिमान् हैं। महाप्रलय और अवान्तर प्रलय आपके ही स्वरूप हैं; आपको मेरा प्रणाम है। नाथ! आपका अट्टहास दुन्दुभि की भाँति भयंकर है। आप भीषण व्रतों को धारण करने वाले हैं। दस भुजाओं से सुशोभित होने वाले और उग्र मूर्तिधारी आपको हमारा नमस्कार है। 
          आप हाथ में कपाल लिये रहते हैं, चिता का भस्म आपको बहुत प्यारा है। भगवान् भीम! आप भयंकर होते हुए भी निर्भय हैं तथा शम आदि उत्तम व्रतों का पालन करते रहते हैं; आपको हमारा प्रणाम है। आप वीणा के प्रेमी तथा वृष (वृष्टिकर्ता), वृष्य (धर्म की वृद्धि करने वाले), गोवृष (नन्दी) और वृष (धर्म) आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। कटंकट (नित्य गतिशील), दण्ड (शासक) और पचपच (सम्पूर्ण भूतोंको पकाने वाला) भी आप ही के नाम हैं; आपको नमस्कार है। 
          आप सबसे श्रेष्ठ, वरस्वरूप और वरदाता हैं, उत्तम माल्य, गन्ध और वस्त्र धारण करते हैं तथा भक्त को इच्छानुसार और उससे भी अधिक वरदान देते हैं; आपको प्रणाम है।
          रागी और विरागी दोनों जिसके स्वरूप हैं, जो ध्यानपरायण, रुद्राक्ष की माला धारण करने वाले, कारण रूप से सबमें व्याप्त और कार्यरूप से पृथक्-पृथक् दिखायी देने वाले हैं तथा जो सम्पूर्ण जगत् को छाया और धूप प्रदान करते हैं, उन भगवान् शंकर को नमस्कार है। अघोर, घोर और घोर से भी घोरतर रूप धारण करने वाले तथा शिव, शान्त एवं अत्यन्त शान्त स्वरूप में दर्शन देनेवाले भगवान् शिव को प्रणाम है। 
          एक पाद, अनेक नेत्र और एक मस्तक वाले आपको प्रणाम है। भक्तों की दी हुई छोटी-से-छोटी वस्तु के लिये भी लालायित रहने वाले और उसके बदले में उन्हें अपार धनराशि बाँट देनेकी रुचि रखने वाले आप भगवान् रुद्र को नमस्कार है। जो इस विश्व का निर्माण करने वाले कारीगर, गौरवर्ण और सदा शान्तरूप से रहने वाले हैं, जिनकी घंटाध्वनि शत्रुओं को भयभीत कर देती है तथा जो स्वयं ही घंटानाद और अनाहत ध्वनि के रूप में श्रवणगोचर होते हैं, उन महेश्वर को प्रणाम है। 
          जिनकी एक ही घंटी हजारों मनुष्यों द्वारा एक साथ बजायी जाने वाली घंटियों के बराबर आवाज करती है, जिन्हें घंटा की माला प्रिय है, जिनका प्राण ही घंटा के समान ध्वनि करता है, जो गन्ध और कोलाहलरूप हैं, उन भगवान् शिव को नमस्कार है। जो ‘हूँ’ कहकर क्रोध और आन्तरिक शान्ति प्रकट करते हैं, परब्रह्म के चिन्तन में तत्पर रहते हैं तथा शान्ति एवं ब्रह्मचिन्तन को प्रिय मानते हैं; पर्वतों पर और वृक्षों के नीचे जिनका निवास हैं और जो सदा शान्त होने का ही आदेश दिया करते हैं, उन महादेवजीको प्रणाम है। 
          जो जगत् का तरणतारण करने वाले, यज्ञ, यजमान, हुत (हवन) और प्रहुत (अग्नि) रूप हैं, उन शंकरजी को नमस्कार है। जो यज्ञ के निर्वाहक, दमनशील, तपस्वी और ताप देने वाले हैं; नदी, नदी के सहस्रों चरण, किनारे तथा नदीपति समुद्र जिनके अपने ही स्वरूप हैं, उन भगवान् शिव को प्रणाम है। अन्नदाता, अन्नपति और अन्नभोक्ता रूप महेश्वर को नमस्कार है। 
          जिनके सहस्रों मस्तक, सहस्रों शूल तथा सहस्रों नेत्र हैं; जो बालसूर्य की भाँति देदीप्यमान और बालक रूप धारण करने वाले हैं, उन शंकरजी को प्रणाम है। अपने बाल अनुचरों के रक्षक, बालकों के साथ खेल करने वाले, वृद्ध, लुब्ध, क्षुब्ध और क्षोभ में डालने वाले आपको प्रणाम है। आपके केश गंगा की तरंगों से अंकित तथा मुंज के समान हैं, आप ब्राह्मणों के छः कर्म-अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन और दान तथा प्रतिग्रह से सन्तुष्ट रहते तथा स्वयं (अध्ययन, यजन और दानरूप) तीन कर्मों का अनुष्ठान किया करते हैं; आपको मेरा नमस्कार हैं। 
          आप वर्ण और आश्रमों के भिन्न-भिन्न कर्मों का विधिवत् विभाग करने वाले, स्तवन करने योग्य, घोषस्वरूप तथा कलकल ध्वनि हैं, आपको बारंबार प्रणाम है। आपके नेत्र श्वेत, पीले, काले और लाल रंग के हैं, आप प्राणवायु को जीतने वाले, दण्डरूप से प्रजा को नियम में रखने वाले, ब्रह्माण्डरूपी घटको फोड़ने वाले और कृश शरीर धारण करने वाले हैं; आपको नमस्कार है। 
          धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष देने के विषय में आपकी कीर्ति कथा वर्णन करने योग्य है। आप सांख्यस्वरूप, सांख्ययोगियों में प्रधान तथा सांख्य शास्त्र को प्रवृत्त करने वाले हैं; आपको प्रणाम है। आप रथ पर बैठकर तथा बिना रथ के भी घूमने वाले हैं। जल, अग्नि, वायु तथा आकाश–इन चारों मार्गों पर आपके रथ की गति है। आप काले मृगचर्म को दुपट्टे की भाँति ओढ़ने वाले और सर्परूप यज्ञोपवीत धारण करने वाले हैं; आपको प्रणाम है।
          ईशान! आपका शरीर वज्र के समान कठोर है। हरिकेश ! आपको नमस्कार है। व्यक्ताव्यक्त स्वरूप परमेश्वर ! आप त्रिनेत्रधारी तथा अम्बिका के स्वामी हैं; आपको नमस्कार है। आप कामस्वरूप कामनाओं को पूर्ण करने वाले, कामदेव के नाशक, तृप्त अतृप्त का विचार करने वाले, सर्वस्वरूप, सब कुछ देने वाले, सबके संहारक और संध्या काल के समान लाल रंग वाले हैं; आपको प्रणाम है। 
          महान् मेघों की घटा के समान श्यामवर्णवाले महाकाल ! आपको नमस्कार है। आपका श्रीविग्रह स्थूल, जीर्ण जटाधारी तथा वल्कल और मृगचर्म धारण करने वाला है। आप देदीप्यमान सूर्य और अग्नि के समान ज्योतिर्मयी जटा से सुशोभित हैं। वल्कल और मृगचर्म ही आपके वस्त्र हैं। आप सहस्रों सूर्यों के समान प्रकाशमान और सदा तपस्या में संलग्न रहने वाले हैं; आपको प्रणाम है। आप जगत् को मोह में डालने वाले और गंगा की सैकड़ों लहरों को धारण करने वाले हैं। आपके मस्तक के बाल सदा गंगा जल से भीगे रहते हैं। आप चन्द्रावर्त (चन्द्रमा को बारंबार क्षय–वृद्धि के चक्कर में डालने वाले), युगावर्त (युगों का परिवर्तन करने वाले) और मेघावर्त (वायुरूप से मेघों को घुमाने वाले) हैं; आपको नमस्कार है। 
          आप ही अन्न, अन्नाद, भोक्ता, अन्नदाता, अन्नभोजी, अन्नस्रष्टा, पाचक, पक्वान्न भोजी तथा पवन एवं अग्निरूप हैं। देवदेवेश्वर ! जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्भिज्ज–ये चार प्रकार के प्राणी आप ही हैं। आप ही चराचर जीवों की सृष्टि और संहार करने वाले हैं। ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! ज्ञानी पुरुष आपको ही ब्रह्मज्ञानियों का ब्रह्म कहते हैं। ब्रह्मवादी विद्वान् आप ही को मनका परम कारण, आकाश, वायु, तेज, ऋक्, साम तथा प्रणव बतलाते हैं। सुरश्रेष्ठ! सामगान करने वाले वेदवेत्ता पुरुष ‘हायि हाथि, हुवा हाथि, हावु हायि’ आदि का उच्चारण करते हुए निरन्तर आप ही की महिमा का गायन करते हैं। 
          यजुर्वेद और ऋग्वेद आपके ही स्वरूप हैं। आप ही हविष्य हैं। वेद और उपनिषदों की स्तुतियों द्वारा आप ही की महिमा का बखान होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा निम्न वर्ण के लोग भी आप ही के स्वरूप हैं। मेघों की घटा, बिजली, गर्जना और गड़गड़ाहट भी आप ही हैं। 
          संवत्सर, ऋतु, मास, पक्ष, युग, निमेष, काष्ठा, नक्षत्र, ग्रह तथा कला भी आपके ही रूप हैं। वृक्षों में प्रधान वट– अश्वत्थ आदि, पर्वतों में शिखर, वनजन्तुओं में व्याघ्र, पक्षियों में गरुड, सर्पों में अनन्त, समुद्रों में क्षीरसागर, यन्त्रों (अस्त्रों) में धनुष, शस्त्रों में वज्र तथा व्रतों में सत्य भी आप ही हैं। आप ही इच्छा, द्वेष, राग, मोह, क्षमा, अक्षमा, व्यवसाय, धैर्य, लोभ, काम, क्रोध, जय तथा पराजय हैं। आप गदा, बाण, धनुष, खाट का पाया तथा झर्झर नामक अस्त्र धारण करने वाले हैं। आप ही छेत्ता (छेदन करने वाले), भेत्ता (भेदन करने वाले), प्रहर्ता (प्रहार करने वाले), नेता, मन्ता (मनन करने वाले) तथा पिता हैं। 
          दस प्रकार के धर्म, अर्थ और काम भी आप ही हैं। गंगा आदि नदियाँ, समुद्र, गड़हा, तालाब, लता, वल्ली, तृण, ओषधि, पशु, मृग, पक्षी, द्रव्य, कर्मसमारम्भ तथा फूल और फल देने वाला काल भी आप ही हैं।
          आप देवताओंके आदि-अन्त हैं। गायत्री मन्त्र और ॐकारस्वरूप हैं। हरित, रोहित, नील, कृष्ण, सम, अरुण, कद्रु, कपिल, कपोत (कबूतर के समान) तथा मेचक (श्याममेघके समान)–ये दस प्रकार के रंग भी आप ही के स्वरूप हैं। आप वर्ण रहित होने के कारण अवर्ण और अच्छे वर्ण वाले होने से सुवर्ण कहलाते हैं। आप वर्णों के निर्माता और मेघ के समान हैं। आपके नाम में सुन्दर वर्णों (अक्षरों) का उपयोग हुआ है इसलिये आप सुवर्णनामा हैं तथा आपको सुवर्ण प्रिय है। 
          आप ही इन्द्र, वरुण, यम, कुबेर, अग्नि, उपप्लव (ग्रहण), चित्रभानु (सूर्य), राहु और भानु हैं। होत्र (सुवा), होता, हवनीय पदार्थ, हवन क्रिया तथा (उसके फल देने वाले) परमेश्वर भी आप ही हैं। वेद की त्रिसौपर्ण नामक श्रुतियों में तथा यजुर्वेद के शतरुद्रिय प्रकरण में जो बहुत-से वैदिक नाम हैं, वे सब आप ही के नाम हैं।
          आप पवित्रों के भी पवित्र और मंगलों के भी मंगल हैं। आप ही गिरिक (अचेतन को भी चेतन करने वाले), हिंडुक (गमनागमन करने वाले), वृक्ष (संसार), जीव, पुद्गल (देह), प्राण, सत्त्व, रज, तम, अप्रमद (स्त्रीरहित–ऊर्ध्वरेता), प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, उन्मेष–निमेष (आँखों का खोलना-मीचना), छींकना और जँभाई लेना आदि चेष्टाएँ हैं। आपकी अग्निमयी दृष्टि लाल रंग की तथा भीतर छिपी हुई है। 
          आपके मुख और उदर महान् हैं। रोएँ सुई के समान हैं। दाढ़ी मूछ काली है। सिर के बाल ऊपर की ओर उठे हुए हैं। आप चराचरस्वरूप हैं। गाने-बजाने के तत्त्व को जानने वाले हैं। गाना-बजाना आपको अधिक प्रिय है। आप मत्स्य, जलचर और जालधारी घड़ियाल हैं। फिर भी अकल (बन्धन से) परे हैं। आप केलिकला से युक्त तथा कलहरूप हैं। आप ही अकाल, अतिकाल, दुष्काल तथा काल हैं। मृत्यु, क्षुर (छेदन करने का शस्त्र), कृत्य (छेदन करने योग्य), पक्ष (मित्र) तथा अपक्षक्षयंकर (शत्रुपक्ष का नाश करने वाले) भी आप ही हैं।
          आप मेघ के समान काले, बड़ी- बड़ी दाढ़ों वाले और प्रलय कालीन मेघ हैं। घण्ट (प्रकाशवान्), अघण्ट (अव्यक्त प्रकाश वाले), घटी (कर्मफल से युक्त करने वाले), घण्टी (घण्टा वाले), चरुचेली (जीवों के साथ क्रीडा करने वाले) तथा मिलीमिली (कारण रूप से सबमें व्याप्त)–ये सब आप ही के नाम हैं। आप ही ब्रह्म, अग्नियों के स्वरूप, दण्डी, मुण्ड तथा त्रिदण्डधारी हैं। 
          चार युग और चार वेद आपके ही स्वरूप हैं तथा चार प्रकार के होतृकर्मों के आप ही प्रवर्तक हैं। आप चारों आश्रमों के नेता तथा चारों वर्णों की सृष्टि करने वाले हैं। आप ही अक्षप्रिय, धूर्त, गणाध्यक्ष और गणाधिप आदि नामों से प्रसिद्ध हैं। आप रक्त वस्त्र तथा लाल फूलों की माला पहनते हैं, पर्वतपर शयन करते और गेरुए वस्त्र से प्रेम रखते हैं। आप ही छोटे और बड़े शिल्पी (कारीगर) तथा सब प्रकार की शिल्पकला के प्रवर्तक हैं।
          आप भगदेवता की आँख फोड़ने के लिये अंकुश, चण्ड (अत्यन्त कोप करने वाले) और पूषा के दाँत नष्ट करने वाले हैं। स्वाहा, स्वधा, वषट्कार, नमस्कार और नमो नमः आदि पद आपके ही नाम हैं। आप गूढ़ व्रतधारी, गुप्त तपस्या करने वाले, तारकमन्त्र और ताराओं से भरे हुए आकाश हैं। धाता (धारण करने वाले), विधाता (सृष्टि करने वाले), संधाता (जोड़ने वाले), विधाता, धरण और अधर (आधाररहित) भी आप ही के नाम हैं। 
          आप ब्रह्मा, तप, सत्य, ब्रह्मचर्य, आर्जव (सरलता), भूतात्मा (प्राणियों के आत्मा), भूतों की सृष्टि करने वाले, भूत (नित्यसिद्ध), भूत, भविष्य और वर्तमान के उत्पत्ति के कारण, भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, ध्रुव (स्थिर), दान्त (दमनशील) और महेश्वर हैं। दीक्षित (यज्ञ की दीक्षा लेने वाले), अदीक्षित, क्षमावान्, दुर्दान्त, उद्दण्ड प्राणियों का नाश करने वाले, चन्द्रमा की आवृत्ति करने वाले (मास), युगों की आवृत्ति करने वाले (कल्प), संवर्त (प्रलय) तथा संवर्तक (पुनः सृष्टि-संचालन करने वाले) भी आप ही हैं। 
          आप ही काम, बिन्दु, अणु (सूक्ष्म) और स्थूलरूप हैं। आप कनेर के फूलन की माला अधिक पसन्द करते हैं। आप ही नन्दीमुख, भीममुख (भयंकर मुख वाले), सुमुख, दुर्मुख, अमुख (मुख रहित), चतुर्मुख, बहुमुख तथा युद्ध के समय शत्रु का संहार करने के कारण अग्निमुख (अग्नि के समान मुख वाले) हैं। हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शकुनि (पक्षी के समान असंग), महान् सर्पों के स्वामी (शेषनाग) और विराट् भी आप ही हैं। 
          आप अधर्म के नाशक, महापार्श्व, चण्डधार, गणाधिप, गोनर्द गौओं को आपत्ति से बचाने वाले, नन्दी की सवारी करने वाले, त्रैलोक्यरक्षक, गोविन्द (श्रीकृष्णरूप), गोमार्ग (इन्द्रियों के आश्रय), अमार्ग (इन्द्रियों के अगोचर), श्रेष्ठ, स्थिर, स्थाणु, निष्कम्प, कम्प, दुर्वारण (जिनका सामना करना कठिन है, ऐसे) दुर्विषह (असह्य वेग वाले), दुःसह, दुर्लङ्घ्य, दुर्द्धर्ष, दुष्प्रकम्प, दुर्विष, दुर्जय, जय, शश (शीघ्रगामी), शशांक (चन्द्रमा) तथा शमन (यमराज) हैं। 
          सर्दी, गर्मी, क्षुधा, वृद्धावस्था तथा मानसिक चिन्ता को दूर करने वाले भी आप ही हैं। आप ही आधि-व्याधि तथा उसे दूर करने वाले हैं। मेरे यज्ञरूपी मृग के वधिक तथा व्याधियों को लाने और मिटाने वाले भी आप ही हैं। (कृष्णरूप में) मस्तक पर शिखण्ड (मोरपंख) धारण करने के कारण आप शिखण्डी हैं। पुण्डरीक (कमल) के समान सुन्दर नेत्र होने के कारण पुण्डरीकाक्ष कहलाते हैं। 
          आप कमल के वन में निवास करने वाले, दण्ड धारण करने वाले, त्र्यम्बक, उग्रदण्ड और ब्रह्माण्ड के संहारक हैं। विषाग्नि को पी जाने वाले, देवश्रेष्ठ, सोमरस का पान करने वाले और मरुद्गणों के ईश्वर हैं। देवाधिदेव ! जगन्नाथ ! आप अमृतपान करने वाले और गणों के स्वामी हैं। विषाग्नि तथा मृत्यु से रक्षा करते और दूध एवं सोमरस का पान करते हैं। 
          आप सुख से भ्रष्ट हुए जीवों के प्रधान रक्षक तथा तुषित नामक देवताओं के आदिभूत ब्रह्माजी का भी पालन करने वाले हैं। आप ही हिरण्यरेता (अग्नि), पुरुष (अन्तर्यामी), स्त्री, पुरुष और नपुंसक हैं। बालक, युवा और वृद्ध भी आप ही हैं। नागेश्वर ! आप जीर्ण दाढ़ों वाले और इन्द्र हैं। विश्वकृत् (जगत् के संहारक), विश्वकर्ता (प्रजापति), विश्वकृत् (ब्रह्माजी), विश्व की रचना करने वाले प्रजापतियों में श्रेष्ठ, विश्वका भार वहन करने वाले, विश्वरूप, तेजस्वी और सब ओर मुखवाले हैं। 
          चन्द्रमा और सूर्य आपके नेत्र तथा पितामह ब्रह्मा हृदय हैं। आप ही समुद्र हैं, सरस्वती आपकी वाणी है, अग्नि और वायु बल हैं तथा आपके नेत्रों का खुलना और बन्द होना ही दिन और रात्रि हैं।
          शिव ! आपके माहात्म्य को ठीक-ठीक जानने में ब्रह्मा, विष्णु तथा प्राचीन ऋषि भी समर्थ नहीं हैं। आपके सूक्ष्म रूप हम लोगों की दृष्टि में नहीं आते। भगवन्! जैसे पिता अपने औरस पुत्र की रक्षा करता है, उसी तरह आप मेरी रक्षा करें। अनघ ! मैं आपके द्वारा रक्षित होने योग्य हूँ, आप अवश्य मेरी रक्षा करें; मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप भक्तों पर दया करने वाले भगवान् हैं और मैं सदा के लिये आपका भक्त हूँ। 
          जो हजारों मनुष्यों पर माया का परदा डालकर सबके लिये दुर्बोध हो रहे हैं, अद्वितीय हैं तथा समुद्र के समान कामनाओं का अन्त होने पर प्रकाश में आते हैं; वे परमेश्वर नित्य मेरी रक्षा करें। जो निद्रा के वशीभूत न होकर प्राणों पर विजय पा चुके हैं और इन्द्रियोंको जीतकर सत्त्वगुण में स्थित हैं–ऐसे योगी लोग ध्यान में जिस ज्योतिर्मय तत्त्वका साक्षात्कार करते हैं, उस योगात्मा परमेश्वर को नमस्कार है। 
          जो जटा और दण्ड धारण किये हुए हैं, जिनका उदर विशाल हैं तथा कमण्डलु ही जिनके लिये तरकस का काम देता है; ऐसे ब्रह्माजी के रूप में विराजमान भगवान् शिव को प्रणाम है। जिनके केशों में बादल शरीर की संधियों में नदियाँ और उदर में चारों समुद्र हैं; उन जलस्वरूप परमात्मा को नमस्कार है। 
          जो प्रलयकाल उपस्थित होने पर सब प्राणियों का संहार करके एकार्णव के जल में शयन करते हैं, उन जलशायी भगवान्‌ की मैं शरण लेता हूँ। जो रात में राहु के मुख में प्रवेश करके स्वयं चन्द्रमा के अमृत का पान करते हैं तथा स्वयं ही राहु बनकर सूर्य पर ग्रहण लगाते हैं, वे परमात्मा मेरी रक्षा करें। 
          उत्पन्न हुए नवजात शिशुओं की भाँति जो देवता और पितर यज्ञ में अपने- अपने भाग ग्रहण करते हैं, उन्हें नमस्कार हैं। वे ‘स्वाहा और स्वधा’ के द्वारा अपने भाग प्राप्त कर प्रसन्न हों। जो रुद्र अंगुष्ठमात्र जीव के रूप में सम्पूर्ण देहधारियों के भीतर विराजमान हैं, वे सदा मेरी रक्षा और वृद्धि करें। 
          जो देह के भीतर रहते हुए स्वयं न रोकर देहधारियों को ही रुलाते हैं, स्वयं हर्षित न होकर उन्हें ही हर्षित करते हैं, उन सबको मैं नमस्कार करता हूँ। नदी, समुद्र, पर्वत, गुहा, वृक्षों की जड़, गोशाला, दुर्गम पथ, बन, चौराहे, सड़क, चौतरे, किनारे, हस्तिशाला, अश्वशाला, रथशाला, पुराने बगीचे, जीर्ण गृह, पंच भूत, दिशा, विदिशा, चन्द्रमा, सूर्य तथा उनकी किरणों में, रसातल में और उससे भिन्न स्थानों में भी जो अधिष्ठाता देवता के रूप में व्याप्त हैं, उन सबको मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ। 
          जिनकी संख्या, प्रमाण और रूप की इयत्ता नहीं है, जिनके गुणों की गिनती नहीं हो सकती, उन रुद्रों को मैं सदा नमस्कार करता हूँ।
          आप सम्पूर्ण भूतों के जन्मदाता, सबके पालक और संहारक हैं तथा आप ही समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा हैं। नाना प्रकार की दक्षिणाओं वाले यज्ञों द्वारा आप ही का यजन किया जाता है और आप ही सबके कर्ता हैं; इसीलिये मैंने आपको अलग निमन्त्रण नहीं दिया। अथवा देव ! आपकी सूक्ष्म माया से मैं मोह में पड़ गया था, इस कारण निमन्त्रण देने में भूल हुई है। 
          भगवन्! मैं भक्ति भाव के साथ आपकी शरण में आया हूँ, इसलिये अब मुझ पर प्रसन्न होइये। मेरा हृदय, मेरी बुद्धि और मेरा मन सब आपमें समर्पित है। इस प्रकार महादेवजी की स्तुति करके प्रजापति दक्ष चुप हो गये।
          तब भगवान् शिव ने बहुत प्रसन्न होकर दक्ष से कहा–‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले दक्ष ! तुम्हारे द्वारा की हुई इस स्तुति से मैं बहुत सन्तुष्ट हूँ; अधिक क्या कहूँ, तुम मेरे निकट निवास करोगे। प्रजापते ! मेरे प्रसाद से तुम्हें एक हजार अश्वमेध तथा एक सहस्र वाजपेय यज्ञ का फल मिलेगा।’ 
          तदनन्तर, लोकनाथ भगवान् शिव ने प्रजापति को सान्त्वना देते हुए फिर कहा–‘दक्ष ! दक्ष ! इस यज्ञ में जो विघ्न डाला गया है, इसके लिये तुम खेद न करना। मैंने पहले कल्प में भी तुम्हारे यज्ञ का विध्वंस किया था। यह घटना भी पूर्वकल्प के अनुसार ही हुई है। सुव्रत ! मैं पुनः तुम्हें वरदान देता हूँ, इसे स्वीकार करो और प्रसन्नवदन एवं एकाग्रचित्त होकर मेरी बात सुनो–मैंने पूर्वकाल में षडंग वेद, सांख्ययोग और तर्क से निश्चित करके देवता और दानवों के लिये भी दुष्कर तप का अनुष्ठान किया था। उसका नाम है पाशुपतव्रत। 
          वह कल्याणमय व्रत मेरा ही प्रकट किया हुआ है। उसके अनुष्ठान से महान् फल की प्राप्ति होती है। महाभाग ! उसी पाशुपतव्रत का फल तुम्हें प्राप्त हो; अब तुम अपनी मानसिक चिन्ता त्याग दो।’ यह कहकर महादेवजी अपनी पत्नी पार्वती तथा अनुचरों के साथ दक्ष की दृष्टि से ओझल हो गये। 
          जो मनुष्य दक्ष के द्वारा किये हुए इस स्तवन का कीर्तन या श्रवण करेगा उसका कभी अमंगल नहीं होगा तथा उसे दीर्घायु की प्राप्ति होगी। जैसे सम्पूर्ण देवताओं में भगवान् शंकर श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण स्तोत्रों में यह स्तवन श्रेष्ठ है। यह साक्षात् वेद के समान है। जो यश, राज्य, सुख, ऐश्वर्य, काम, अर्थ, धन या विद्या की इच्छा रखते हों, उन सबको भक्ति पूर्वक इस स्तोत्र का श्रवण करना चाहिये। 
          रोगी, दुःखी, दीन, चोर के हाथ में पड़ा हुआ, भयभीत तथा राजा के कार्य का अपराधी मनुष्य भी इस स्तोत्र का पाठ करने से महान् भय से छुटकारा पा जाता है। वह इसी देह से भगवान् शिव के गणों की समता प्राप्त कर लेता है और तेजस्वी, यशस्वी एवं निर्मल हो जाता है। जहाँ इस स्तोत्र का पाठ होता है, उस घर में राक्षस, पिशाच, भूत और विनायक कोई विघ्न नहीं करते। 
          जो स्त्री भगवान् शंकर में भक्ति रखकर ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई इस स्तोत्र का श्रवण करती है, वह पिता और पति–दोनों के घर में देवता की भाँति पूजी जाती है। जो मनुष्य समाहित चित्त से इसका श्रवण या कीर्तन करता है, उसके सभी कार्य सदा सफल हुआ करते हैं। 
          इस स्तोत्र के पाठ से मन में सोची हुई तथा वाणी द्वारा प्रकट की हुई सभी प्रकार की कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। मनुष्य को चाहिये कि इन्द्रियों को संयम में रखकर शौच-सन्तोष आदि नियमों का पालन करते हुए कार्तिकेय, पार्वती और नन्दिकेश्वर आदि अंगदेवताओं की पूजा करके उन्हें बलि अर्पण करे; फिर एकाग्रचित्त होकर क्रमशः इन नामों का पाठ करे। 
          इस विधि से पाठ करने पर वह इच्छानुसार धन, काम और उपभोग की सामग्री प्राप्त करता है तथा मरने के पश्चात् स्वर्ग में जाता है। उसे पशु-पक्षी आदि की योनि में जन्म नहीं लेना पड़ता। इस प्रकार पराशरनन्दन भगवान् व्यासजी ने इस स्तोत्र का माहात्म्य बतलाया है।
                              ~~~०~~~
Lord Shiva's Story of Daksha Prajapati

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